हिमालय  

Posted by Satyajeetprakash in ,

 मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
 
साकार, दिव्य, गौरव विराट
पौरुष  के  पुंजीभूत  ज्वाल !
मेरे जननी के हिम-किरीट !
मेरे  भारत  के दिव्य भाल !
 
मेरे नगपति !  मेरे विशाल !
युग-हग  अजेय,  निर्बन्ध, मुक्त,
युग-युग शुची, गर्वोन्नत महान,
निस्सीम  व्योम  में  तान  रहा,
 
युग से किस महिमा का वितान ?
कैसी  अखंड  यह  चिर  समाधि ?
यतिवर ! कैसा यह अमित ध्यान ?
तू   महाशून्य    में    खोज   रहा
 
किस जटिल समस्या का निदान?
उलझन  का  कैसा विषम जाल ?
मेरे  नगपति !  मेरे  विशाल !
ओ, मौन तपस्या लीन यति !
 
पल भर को तो कर दृगोंमेश !
रे  ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर सन्देश !
सुखसिंधु,   पंचनद,  ब्रह्मपुत्र,
 
गंगा, यमुना की अमिय-धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी  विगलित करुणा उदार,
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत
 
सीमापति !  तूने की पुकार,
पद-दलित इसे करना पीछे
पहले  ले  मेरे  सिर उतार !'
उस पुण्यभूमि पर आज तप !
 
रे,  आन  पड़ा  संकट  कराल,
व्याकुल  तेरे  सुत  तड़प  रहे,
डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल !
मेरे  नगपति !   मेरे  विशाल !
 
कितनी मणियाँ लुट गयी ? मिटा
कितना   मेरा   वैभव  अशेष !
तू ध्यान -मग्न ही रहा, इधर
वीरान  हुआ  प्यारा सन्देश !
 
किन   द्रौपदियों  के   बाल  खुले ?
किन-किन कलियों का अंत हुआ ?
कह  हृदय  खोल  चित्तोर !   यहाँ
कितने  दिन  ज्वाल-वसंत  हुआ ?
 
पूछे सिकता-कण से हिम्पति !
तेरा  वह  राजस्थान  कहाँ ?
बन-बन स्वतंत्रता दीप लिए
फिरनेवाला बलवान कहाँ ?
 
तू  पूछ अवध  से,  राम  कहाँ ?
वृंदा  ! बोलो,  घनश्याम कहाँ ?
ओ मगध ! कहां मेरा अशोक ?
वह  चन्द्रगुप्त  बलधाम कहाँ ?
 
पैरों    पर  ही  है  पढ़ी  हुई
मिथिला भिखारिणी सुकुमारी
तू   पूछ   कहाँ   इसने  खोयी
अपनी अनंत निधियां सारी ?
 
री कपिलवस्तु ! कह, बुद्धदेव
के  वे  मंगल  उपदेश  कहाँ ?
तिब्बत, इरान, जापान, चीन
तक  गए  हुए सन्देश कहाँ ?
 
वैशाली  के   भग्नावशेष  से
पूछ   लिच्छवी-शान  कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी !  बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ ?
 
तू  तरुण  देश  से  पूछ  अरे,
गूंजा यह  कैसा ध्वंस-राग ?
अम्बुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग ?
 
प्राची    के   प्रांगन - बीच   देख,
जल रहा स्वर्ण-युग अग्नि-ज्वाल,
तू  सिंघनाद   कर  जाग  तापी !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
 
रे, रोक युधिष्ठर को न यहाँ
जाने  दे  उसको स्वर्ग धीर,
पर,  फिर हमें गांडीव-गदा,
लौटा  दे  अर्जुन-भीम  वीर
 
कह  दे  शंकर  से, आज करें 
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार !
सारे   भारत   में   गूँज   उठे,
'हर-हर-बम का फिर महोच्चार !
 
ले   अंगडाई,  उठ,  हिले  धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद,
तू    शैल्रराट  !    हुंकार   भरे,
फट जाय कुहा, भागे प्रमाद !
 
तू  मौन  त्याग   कर  सिंहनाद,
रे तपी ! आज तप का न काल !
नव-युग शंख ध्वनि जगा रही,
तू  जाग,  जाग,  मेरे विशाल !
(रेणुका) ( १९३०)


अखंडित एकता बोले हमारे देश की भाषा हमारी भारती है हमें यह एक अभिलाषा

This entry was posted on गुरुवार, 7 जून 2012 at 8:12 am and is filed under , . You can follow any responses to this entry through the comments feed .

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