हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध ना गा पाएंगे.
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएंगे.
हम बहता जल पीने वाले
मर जाएंगे भूखे प्यासे.
कहीं भली है कटूक निबौरी
कनक कटोरी की मैदा से.
स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
अपने गति उड़ान सब भूले.
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर झूलें.
ऐसे थे अरमान की उड़ते
नीले नभ के सीमा पाने
लाल किरण से चोंच खोलकर
चुनते तारक अनार के दाने
होती सीमाहीन क्षितिज में
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या सांसों की डोरी
नीड़ न दो चाहे टहनी को
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिेए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न ना डालो..
शिवमंगल सिंह सुमन
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on सोमवार, 9 जून 2008
at 10:52 pm
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कविता,
शिव मंगल सिह सुमन
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