क्षमा दया तप त्याग मनोबल
सबका लिया सहारा।
पर नरव्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो कहां कब हारा।
क्षमाशील हो रिपु समक्ष
तुम विनीत हुए जितना ही।
दुष्ट कौरव ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो।
उसको को क्या जो दंतहीन
विषहीन विनीत सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते
रघुपति रहे सिंधु किनारे।
बैठे-बैठे छंद को पढ़ते
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर से जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से।
उठी अधीर धधक पौरूष की
आग राम के शर से।
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में।
चरण पूज दासता ग्रहण की
बंधा मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो सर में ही
बसती दीप्ति विनय की।
संधि वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता क्षमा दया को
तभी पूजता जग है।
बल का दर्प चमकता जिसके
पीछे जब जगमग है।।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर
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on रविवार, 19 दिसंबर 2010
at 9:20 am
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