- नरेन्द्र कोहली
महाभारत हमारा काव्य है, इतिहास है और हमारा अध्यात्म भी है। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि कुछ लोग अपने अज्ञान के कारण मान लेते हैं। महाकाल की यात्रा खंडों में विभाजित नहीं है, इसलिए यह सोचना गलत है कि जो घटनाएं घटित हो चुकीं, उनसे अब हमारा कोई संबंध नहीं है। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंडों में बांटे तो बांटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलता रहता है। महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। यह मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी और भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लोभ, मोह, सत्ता और स्वार्थ की शक्तियां संघर्षरत हैं। मनुष्य को बाहर से अधिक अपने भीतर लड़ना पड़ता है। परायों से अधिक उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और यदि वह अपने धर्म पर टिका रहता है, तो वह सदेह स्वर्ग प्राप्त कर सकता है - इसका आश्वासन महाभारत देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुद्ध मनुष्य के इस सात्विक युद्ध को महाभारत में अत्यंत विस्तार से प्रस्तुत किया गया है।
महाभारत अनेक आनुशंगिक कथाओं और अनेक चिंतन ग्रंथों के मध्य, पांडवों की कथा कहने वाला एक महाग्रंथ है। उन सबके ही माध्यम से उसने अनेक व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक और आध्यातिमक मूल्यों की स्थापना की है। अत: उसमें जीवन का चित्रण विभिन्न स्तरों पर हुआ है। काव्य है, अत: मानव के भावावेगों का चित्रण पूर्णता और पूरी ईमानदारी से हुआ है। उसमें राग-द्वेष है, शृंगार है, रतिप्रसंग हैं, वात्सल्य है, द्वेष है, ईर्ष्या है, कामना है, तृष्णा है, क्रोध है, उत्साह है, भय, जुगुप्सा और शोक सब कुछ है। वे सारे भाव आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने सहस्रों वर्ष पूर्व थे। भारतीय मनीषा की मान्यता है कि यह सृष्टि ऋत् के नियम के अधीन चलती है। इसे ईश्वरीय नियम कह सकते हैं। सामान्य भाषा में इसीको प्रकृति का नियम कहा जाता है। हम देख सकते हैं कि न तो कभी प्रकृति के नियम परिवर्तित होते हैं, न मनुष्य का स्वभाव ही बदलता है। संसार का परिदृश्य प्रतिदिन बदलता है; किंतु मनुष्य के भाव तब भी वे ही थे और आज भी वे ही हैं। अत: काव्य की दृष्टि से महाभारत की कथाएं आज भी उतनी ही आकर्षक हैं, जितनी अपने काल में रही होंगी।
महाभारत को हम अपना इतिहास मानते हैं। अत: उस समय की घटनाएं और लोकाचार इसमें पूरी प्रामाणिकता से चित्रित हैं। उस समय की मूल्य-व्यवस्था इतनी स्पष्टता से अंकित की गई है कि उसकी प्रत्यक्षता और सच्चाई पर आश्चर्य होता है। आजके अनेक चिंतक कह सकते हैं कि उस समय के वे सारे छोटे-बड़े मूल्य - बहुपत्नीत्व, बहुपतित्व, परिवेदन, नियोग, स्वयंवर, हरण-अपहरण तथा चितारोहण इत्यादि - आज उतने प्रासंगिक नहीं हैं। मैं इसे अर्द्धसत्य कह सकता हूं। वस्तुत: महाभारत' में ही समाज की विविधता और विचारों तथा मूल्यों में होने वाले परिवर्तन के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। सत्यवती और कुंती दोनों ही अपने कानीन पुत्रों को अपने श्वसुरकुल में स्वीकार नहीं कर सकीं, अत: इस बात को गोपनीय रखा गया कि व्यास की माता सत्यवती और कर्ण की माता कुंती हैं। दूसरी ओर पराशर ने व्यास को निस्संकोच अपना पुत्र स्वीकार कर उनका पालन-पोषण किया। सूर्य ने भी अवसर आने पर कर्ण के साथ अपना संबंध प्रकट कर दिया था। कुंती ने कर्ण को तो बताया कि वह उनका पुत्र है; किंतु समाज से उसे गुप्त ही रखा।
इन उदाहरणों में यह तो सहज ही दिखाई देता है कि माता-पिता की अनुमति के अभाव में भी स्त्री-पुरुष संबंधों की स्वतंत्रता को ऋषि तो स्पष्ट मान्यता देता है, किंतु राजवंश इसे स्वीकार नहीं करता। दुष्यंत ने भी शकुंतला से गांधर्व विवाह कर लिया; किंतु बाद में उस संबंध को स्वीकार करने में उन्हें कठिनाई होने लगी। दूसरी ओर कण्व को उस संबंध को स्वीकार करने में तनिक भी आपत्ति नहीं हुई।
यही कारण है कि मेरा ध्यान इस बात पर जाता है कि उस युग में हमारे देश में विधान राजाओं ने नहीं, ऋषियों ने रचे थे। समाज पर राजाओं के संविधान नहीं, ऋषियों की स्मृतियां शासन करती थीं। ऋषियों ने चार प्रकार की संतानों को मान्यता दी है : 1.कानीन पुत्र 2.औरस पुत्र 3.क्षेत्रज पुत्र और 4.दत्तक पुत्र। यदि कानीन पुत्र और क्षेत्रजपुत्र को धर्म संगत न माना गया होता, तो नियोग की प्रथा को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता था।
इसका अर्थ स्पष्ट है कि ऋषि की दृष्टि में स्त्री-पुरुष की परस्पर सहमति से प्रत्येक संतान का जन्म पवित्र है। वह प्रकृति की संतान है। अत: धर्म-विरोधी नहीं है। किंतु सत्यवती, कुंती तथा शकुंतला - तीनों के ही संदर्भ में हम देख रहे हैं कि उनके श्वसुरकुल राजवंश थे, अत: उन्हें गांघर्व विवाह अथवा कानीनपुत्र की अवधारणा स्वीकार्य नहीं थी। कुंती का मायका भी राजपरिवार था, अत: वे कर्ण को अपने मायके में भी मान्यता नहीं दिलवा पाईं।
स्पष्ट है कि ऋषि, व्यक्ति के रूप में नहीं सोचता था। उसका चिंतन राजाओं के समान वैयक्तिक और स्वार्थपरक चिंतन नहीं था। वह भिक्षा पर निर्भर रह कर भी सामाज के हित में चिंतन करता था। उसे तो समाज और देश की रक्षा के लिए योद्धा चाहिए थे, ज्ञान का विकास करने के लिए उत्तराधिकारी चाहिए थे। अत: संतान के जन्म को प्रकृति की इच्छा मानने के कारण, वह उसे किसी भी रूप में स्वीकार्य था। किंतु उसमें माता की सहमति आवश्यक थी। एक प्रकार से काम-संबंधों में स्त्री की इच्छा ही प्रधान थी। वह संतान की इच्छा से किसी भी पुरुष से रतिदान का आग्रह कर सकती थी। उलूपी इसी कामना से अर्जुन के पास गई थी।
ऋषि को अपना ज्ञान वितरित करना था, वह किसी भी सात्विक, योग्य व्यक्ति को अपना मानसपुत्र मान कर, उसे अपना ज्ञान दे सकता था; किंतु राजा को अपना राज्य देना था, अपनी सत्ता, संपत्ति और अधिकार देना था, अत: राजा किसी को भी अपनी संतान मानने से कतराने लगा था। वह अपना उत्तराधिकार देने के लिए अपना औरस पुत्र ही चाहता था। यहीं से ऋषियों और राजवंशों के चिंतन में भेद उत्पन्न होने लगा था।
आज 'स्पर्म डोनर' की कल्पना यथार्थ में परिवर्तित हो रही है। महाभारत में चर्चित 'नियोग' की अवधारणा पांच सहस्र वर्ष प्राचीन है। हमें 'स्पर्म डोनर' से 'नियोग' को नहीं, 'नियोग' के माध्यम से 'स्पर्म डोनर' को समझना चाहिए। अंबिका और अंबालिका की नियोग संबंधी इच्छा-अनिच्छा तथा तत्संबंधी नारी के अधिकार का संवाद, आज भी अप्रासंगिक नहीं है।
महाभारत में संयुक्त परिवार का एक अद्भुत रूप दिखाई पड़ता है। वहां 'चाचा' और 'ताऊ' जैसे शब्द हैं ही नहीं, न 'ताई' और 'चाची' हैं। केवल पिता और माता। धृतराष्ट्र को कहीं पांडवों का ताऊ और विदुर को चाचा नहीं कहा गया। वे पिता ही कहलाए। गांधारी और विदुर-पत्नी (पारंसवी) उनकी माताएं ही कहलाईं। इस प्रकार का संयुक्त परिवार तो शायद उसके पश्चात् कभी नहीं रहा, किंतु शताब्दियों तक भारत में संयुक्त परिवार भी जीवित रहा और ताऊ-चाचा को पिता जैसा सम्मान भी मिलता रहा। अब निश्चित रूप से यह परंपरा क्षीण तो हो ही चुकी है, समाप्त-प्राय भी है। फिर भी आदर्श के रूप में इस परंपरा को आज भी श्रेयस्कर माना जाता है। कहीं-कहीं तो उसके लुप्त होने पर खेद भी प्रकट किया जाता है। किंतु समाज और सामाजिक संबंधों के इस परिवर्तन से महाभारत की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हो जाती।
महाभारत में मुख्य कथा पांडव-कथा है, जिसमें प्रत्येक क्षण कृष्ण उनके सहायक हैं। उनके माध्यम से व्यक्ति, परिवार, समाज तथा राजा के धर्म को परिभाषित किया गया है। मुख्य कथा राजपरिवार अथवा राजपरिवारों की है, अत: राजनीति और राजधर्म के साथ-साथ धर्म भी बहुत महत्वपूर्ण है; और समाज में धर्म की स्थापना भी। अनेक प्रसंगों में धर्म का स्वरूप और परिभाषा बदल जाती है; किंतु उसका अर्थ 'मज़हब' या 'रिलीजन' कहीं नहीं है। जब कृष्ण युद्ध को बचाने के लिए शांतिदूत के रूप में अंतिम प्रयत्न कर, हस्तिनापुर से लौट रहे हैं, तो वे कुंती के पास भी जाते हैं। तब युधिष्ठिर के लिए संदेश देते हुए, कुंती ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है, काल-गणना की दृष्टि से कोई भी युग हो, किंतु राजा यदि धर्मपूर्वक शासन करता है, तो सत्ययुग प्रकट हो जाता है; और यदि राजा अधर्म पर चलता है तो धरती पर कलियुग का आगमन हो जाता है।
इसे ध्यान में रखें, तो यह बात आरंभ से ही रेखांकित होती चलती है कि कहीं भी अन्याय और अधर्म न हो, किसी का भी अधिकार न छीना जाए, किसी को भी कष्ट न दिया जाए, समता और न्याय तक, सब की पहुंच हो। इसलिए मुझे लगता है कि महाभारत की कथा का जन्म भागवत् की कोख से होता है। मथुरा में कंस के सारे अत्याचारों को सह कर भी वसुदेव और देवकी ने कृष्ण और बलराम को बचाया है; और उन दोनों ने कंस के साथियों का ही नहीं, अंतत: कंस का भी वध किया। न्याय का युद्ध और धर्म-स्थापना का कार्य यहीं से आरंभ हो जाता है।
एक तथ्य और भी ध्यातव्य है। किसी भी कंस का जन्म कैसे होता है ? जब जरासंध जैसी एक महाशक्ति अधर्म का पोषण करती है, तो उसकी छत्रछाया में अनेक कंस जन्म लेते हैं; और सामान्य मानवता को पीडि़त करते हैं। जब कोई महाशक्ति अपनी शक्ति के मद में मनमानी को अपना अधिकार मान लेती है, तो अधर्म का पोषण होने लगता है। पिछली शताब्दियों में यूरोपीय महाशक्तियों ने अनेक दुर्बल देशों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार कर मानवता को पीडित किया है और अंतत: संसार ने महायुद्धों को झेला है। कृष्ण नहीं चाहते कि जरासंध के अत्याचार इतने बढ़ें कि संसार को महायुद्ध का महासंहार झेलना पड़े। अधर्मी शक्तियों को नियंत्रित रखने का कार्य, वे कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर से ही आरंभ करते हैं।
कृष्ण ने अक्रूर को हस्तिनापुर भेजा था। बुआ कुंती और उनके पुत्रों के साथ धृतराष्ट्र अन्याय तो नहीं कर रहा ? वहां पाप तो नहीं पनप रहा ? यह वह समय है, जब दुर्योधन ने भीम को विष दे कर मार डालने का प्रयत्न किया था। भीम बच गया, यह उसका भाग्य था। कुंती दुखी होकर अपने पुत्र की हत्या के प्रयत्न की शिकायत विदुर से करती हैं, तो हस्तिनापुर के राजकीय आतंक को समझने वाले विदुर, उन्हें यही परामर्श देते हैं कि वे चुप रहें। ऐसा न हो कि अपने एक पुत्र की हत्या के प्रयत्न का परिवाद वे राजा से करें, तो उन्हें अपने अन्य पुत्रों के वध का समाचार सुनना पड़े।
जब अक्रूर अपने मन में यह धारणा लिए हुए हस्तिनापुर पहुंचे कि कुंती अपने परिजनों के मध्य सुरक्षित और प्रसन्न होगी, तो कुंती ने बताया कि वे अपने परिजनों के मध्य नहीं, एक भयभीत मृगी के समान, हिंस्र भेडि़यों के मध्य भय, आतंक और असुरक्षा के परिवेश में जी रही हैं। आज भीम की हत्या का प्रयत्न हुआ है, कल उनके अन्य पुत्रों को भी मारने का प्रयत्न किया जाएगा।
कृष्ण समझ जाते हैं कि हस्तिनापुर में भीष्म, द्रोण और विदुर जैसे धर्मज्ञों के होते हुए भी, वहां का राजा धृतराष्ट्र पाप की जड़ था, और उसकी छत्रछाया में पाप ही नहीं पनप रहा था, दुर्योधन और दु:शासन जैसे राक्षसों का निर्माण भी हो रहा था। यदि उसी समय अधर्म को न रोका गया तो यह आग, फैल कर भयंकर विनाश-लीला रचेगी। यह तथ्य आज भी प्रमाणित करता है कि धर्मज्ञों और महान् चिंतकों की उपस्थिति मात्र, राजा को धर्म पर चलाने में समर्थ नहीं होती। राजा के मन में धर्म हो, तभी अधर्म रुक सकता है। यह कृष्ण का ही प्रयत्न और सैन्य-बल था कि हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का युवराज्याभिषेक हुआ और पांडव कुछ निश्चिंत हुए।
इस बीच कृष्ण की मथुरा पर जरासंध, कालयवन और बाणासुर के सामूहिक आक्रमण का संकट उपस्थित हो गया; और उस समय के असाधारण योद्धा श्रीकृष्ण यह निर्णय करते हैं कि यद्यपि आत्मरक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य है, किंतु वे मथुरा की निरीह जनता को महाकाल के मुख में धकेलने की अपेक्षा, स्वयं युद्ध से हट जाना पसंद करेंगे। उन्होंने मथुरा खाली कर दी और द्वारका चले गए। कृष्ण का एक नाम 'रणछोड़ जी' भी है - 'युद्ध से भागने वाला'। उन्होंने इतना बड़ा कलंक अपने माथे पर लिया; किंतु निर्दोष और निरीह जनता का वध स्वीकार नहीं किया। यह आज तक के बड़े से बड़े योद्धा के लिए एक उदाहरण है कि युद्ध और बर्बरता में अंतर होता है। युद्ध कितना भी बड़ा हो, कितने भी महान् लक्ष्य के लिए हो, किंतु अनावश्यक हिंसा से बचना चाहिए। अपने ही नहीं, शत्रु सैनिकों के साथ भी अनावश्यक हिंसा नहीं होनी चाहिए। द्रुपद के साथ अपने पहले युद्ध में जिस समय भीम सैनिकों का अबाध संहार कर रहा था, अर्जुन ने उससे कहा कि हमने द्रुपद को बंदी कर अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है, अब अनावश्यक हिंसा मत करो। हिंस्रता-विरोधी अपनी इसी परंपरा में, 1971 ई. के भारत-पाकिस्तान के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान के 90 सहस्र सैनिकों को बंदी कर पाकिस्तान को सुरक्षित लौटा दिया। हर प्रकार का अवसर होते हुए भी, उनके सैनिकों से किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने का प्रयत्न नहीं किया। महाभारत की हिंसा और अहिंसा, दोनों ही मानवता के लिए सदा ही प्रासंगिक रहेंगी।
हम स्मरण रखें कि संपत्ति का लोभ और राज्य का मोह, मनुष्य में तब भी उतना ही था, जितना कि आज है। यादवों के मथुरा से हटते ही, धृतराष्ट्र ने पांडवों से राज्य छीनने का उपाय खोजना आरंभ किया। उसके कूटनीतिज्ञ मंत्री कणिक ने उसे परामर्श दिया कि राजनीति यही है कि आपके अतिरिक्त राज्य का जो कोई भी दावेदार हो, उसे जीवित न रहने दिया जाए। धृतराष्ट्र ने तत्काल ही उस परामर्श को स्वीकार किया। अपनी भाभी कुंती और अपने भ्रातुष्पुत्रों - जो उसे अपना पिता मानते थे - को वारणावत के लाक्षागृह में भेज कर आग लगवा दी। उसने उन्हें जला कर मार ही डाला था। वह तो विदुर की सावधानी और चतुराई थी और पांडवों का भाग्य अच्छा था कि वे जीवित बच गए।
यह प्राचीन इतिहास है। मध्य युग के इतिहास ने अनेक बार, राज्य के लिए भाइयों द्वारा भाइयों को और पुत्रों द्वारा पिता को प्रताडि़त होते देखा है। नेपाल में अभी-अभी (1 जून 2001 ई.) राज्य के लोभ में पूरे राजपरिवार की हत्या कर दी गई है; और वह भी कदाचित् सगे भाई के द्वारा। पाकिस्तान में इसी वर्ष बेनजीर भुट्टो (जनवरी 2008 ई.) की ही नहीं, उसके साथ-साथ सैकड़ों निर्दोष लोगों की हत्या की गई है। अमरीका में कैनेडी भाइयों की हत्याएं, इसी नीति का एक अंग हैं। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि महाभारत की घटनाएं तनिक भी असाधारण और अस्वाभाविक नहीं हैं; और न ही वे अब तक अप्रासंगिक हुई हैं। हम उसी संसार में सांस ले रहे हैं, जिसमें महाभारत' के पात्र रह रहे थे। राजनीतिक हत्याएं आज का भी सामान्य सत्य है। व्यक्ति का लोभ, अपने शत्रुओं का ही नहीं, अपने परिजनों की भी हत्याएं करवाता है। देश के शासकों का लोभ, पहले अपने परिवार में रक्त की होली खेलता है और फिर विभिन्न देशों के मध्य युद्धों का सूत्रपात करता है।
महाभारत की मान्यता है कि वस्तुत: हत्याओं का व्यापार भूखे-नंगे निर्धन लोगों ने कम ही किया है; यह तो सत्तालोलुप शक्तिशाली लोगों का ही काम अधिक रहा है। मध्य काल में यूरोप के राष्ट्रों ने एशिया, अफ्रीका, अमरीका तथा आस्ट्रेलिया में जितनी हत्याएं की हैं, वे न्याय अथवा धर्म की स्थापना के लिए नहीं थीं। वे अपनी शक्ति के अहंकार और सत्ता और संपदा के लोभ में किए गए कृत्य हैं। मध्यकाल में जिस समय धार्मिक साम्राज्यों ने अपने विस्तार के लिए युद्ध छेड़े और सर्वसंहार किया, वह भी किसी अन्याय के विरुद्ध नहीं, अपनी सत्ता की स्थापना के लिए था। आज भी आतंकवाद के नाम पर जो नर-संहार हो रहा है, या अधिक शक्तिशाली देश दुर्बल देशों का दमन कर रहे हैं, वह जरासंध, कालयवन, बाणासुर के कृत्यों से ही नहीं, धृतराष्ट्र और दुर्योधन के अनाचारों से भी कुछ भिन्न नहीं है। आप खुली आंखों से महाभारत पढ़ने बैठेंगे, तो उसमें अपने देश और काल को ही प्रतिबिंबित पाएंगे। अपने ही समय का सर्वांगीण रूप देखेंगे।
कृष्ण जैसे धर्म के संस्थापक, धृतराष्ट्र के लोभ के इस तांडव को निष्क्रिय रह कर नहीं देख सकते थे। वे चाहते तो तत्काल धृतराष्ट्र को इस पाप का दंड दे सकते थे। उससे उनका दुष्ट-दलन का धर्म तो पूर्ण हो जाता; किंतु धर्म-राज्य की स्थापना का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता। जिस प्रकार कुंती ने अपने संदेश में राजा के धर्मसंगत शासन पर बल दिया था, उसी प्रकार कृष्ण भी उस व्यक्ति को खोज रहे थे, जो किसी भी स्थिति में अपने धर्म से च्युत न हो और प्रजा का अपनी संतान के समान पालन करे। उसके लिए उनको धर्मराज युधिष्ठिर में ही वह आदर्श शासक दिखाई पड़ता था। यह विचारणीय है कि कृष्ण स्वयं कभी राजा नहीं बने, न उन्होंने अपने पिता अथवा अपने भाइयों में से किसी को राजा बनाने का प्रयत्न किया। ऐसा कुछ करने पर यादवों में गृह-कलह छिड़ जाने की बहुत संभावना थी।
धृतराष्ट्र द्वारा पांडवों को वारणावत में जला देने के प्रयत्न के पश्चात् कृष्ण ने उन्हें खोज निकाला। इस प्रयत्न में विदुर और कृष्ण द्वैपायन व्यास उनके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगी थे। वस्तुत: यह धर्म का पक्ष था। इतना तो वे समझ ही गए थे कि यदि पांडव पुन: धृतराष्ट्र की छत्र-छाया में रहे तो जीवित नहीं बचेंगे; और उनकी मृत्यु के साथ ही कृष्ण का हस्तिनापुर में धर्म-राज्य की स्थापना का स्वप्न भी समाप्त हो जाएगा। अत: यह आवश्यक था कि पांडव, धृतराष्ट्र से पृथक् और दूर रहें; अपना सैन्य बल ही अर्जित न करें, उनके कुछ शक्तिशाली सहायक भी हों। कृष्ण की इसी योजना ने पांडवों का संबंध कौरवों के पारंपरिक शत्रु पांचालों से करवा दिया।
पांचालों की राजधानी कांपिल्य में आने से पहले, पांडवों ने हिडिंब और बकासुर को मार कर अपना शौर्य प्रदर्शित किया, किंतु महत्व की बात 'एकचक्रा' नगरी में भीम के बकासुर से युद्ध की है। राक्षसों इत्यादि के पौराणिक शिल्प में से जो सत्य महाभारतकार उजागर करना चाहता है, वह आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। 'एकच्रका' का राजा अपनी शक्ति के भरोसे नहीं, बकासुर के बल पर 'एकचक्रा' पर शासन कर रहा था। परिणाम यह था कि प्रजा सुरक्षित नहीं थी। वहां बकासुर प्रतिदिन एक न एक परिवार को नष्ट करता था, किंतु राजा उसे न रोक सकता था, न उसका निषेध कर सकता था। जो सरकारें अमरीका या रूस जैसी महाशक्तियों के बल पर अपने देशों में शासन करती रही हैं, या आज कर रही हैं, वे इस बात को अच्छी तरह समझती हैं कि वे नाम मात्र की ही शासक हैं। सत्य यही है कि वे अपनी प्रजा का कोई हित नहीं कर सकती हैं। इसका एक उदाहरण पाकिस्तान भी है। उसने आतंकवादियों को शस्त्र थमा कर, भारत से कश्मीर छीनने का प्रयत्न किया है, किंतु आज उन आतंकवादियों के शस्त्रों के धमाकों से ही पाकिस्तान और अफगानिस्तान दहल रहे हैं।
ऐसा ही उदाहरण, राजा विराट का भी है, जिसका सेनापति कीचक उससे अधिक शक्तिशाली है। विराट, प्रजा का उत्थन तो क्या करता, वह एक असहाय अबला सैरंध्री (द्रौपदी) को भी उसके अत्याचार से नहीं बचा सकता। राजा के सम्मुख अपनी सुरक्षा के लिए गिड़गिड़ाती सैरंध्री को कीचक राजसभा में ही लात मार कर अपमानित करता है; और राजा तथा राजकर्मचारियों में से किसी का साहस नहीं होता कि वे उसका विरोध कर पाएं। आज भी जिन-जिन देशों में सेना, नागरिक शासकों से अधिक शक्तिशाली है, वहां यही घटनाक्रम दुहराया जा रहा है। म्यांमार में आम चुनावों में बहुमत से चुनी गई औंग सैन सू काई (Aung San Suu Kyi) आज भी कारागार में है; और सारा देश और नागरिक अधिकार सेना के बूटों तले कुचले जा रहे हैं।
कृष्ण ने पांडवों को पांचालों और यादवों की सहायता से शक्तिसंपन्न बना कर पुन: हस्तिनापुर लाने का प्रबंध किया। धृतराष्ट्र ने इस बार भी उनको उनका पूर्ण अधिकार तो नहीं दिया, किंतु वह उन्हें पूर्णत: वंचित रखने का साहस भी नहीं कर सका, अत: उन्हें खांडवप्रस्थ का राज्य देकर पृथक् कर दिया। खांडवप्रस्थ में पांडवों के राज्य की स्थापना हुई; किंतु वहां भी महाशक्तियों का आतंक स्पष्ट दिखाई देता है। कृष्ण अपने धन से पांडवों के राज्य का निर्माण करते हैं; किंतु उनको परामर्श देते हैं कि इंद्र को वे प्रसन्न रखें। खांडवप्रस्थ का नाम इंद्रप्रस्थ रखा जाता है, ताकि इंद्र पांडवों के इस नन्हें से नए राज्य के अनुकूल रहे। इतना सब कुछ करने पर भी हम देखते हैं कि पांडवों के राज्य की सीमा के भीतर खांडव वन में इंद्र पांडवों के अनेक शत्रुओं का पोषण कर रहा है। अपने मित्रों के राज्यों में भी अपने गुप्त पुरुषों और जासूसों को रखने की परंपरा आज भी समाप्त नहीं हुई है। उससे भी आगे बढ़ कर उनके शत्रुओं को आश्रय देने का काम भी किया जाता है। खांडव वन के दाह के समय पता चलता है कि इंद्र वहां तक्षक और उसके परिवार को संरक्षण दे रहा है। तक्षक वैसे तो एक नाग का नाम है, जिसे लोग एक सर्प मान बैठे हैं; किंतु महाभारत की आगे की कथा में यही तक्षक छिप कर अर्जुन के पौत्र और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को डस लेता है। वह एक प्रकार का आतंकवादी अथवा शार्पशूटर है, जो भाड़े का हत्यारा है। पांडवों के राज्य की सीमा में इंद्र उसे पोषित कर रहा था। पाकिस्तान, अधिकृत कश्मीर और अफगानिस्तान में ही नहीं, अपने सीमांत प्रदेश में भी, आतंकवादियों को प्रशिक्षण देता रहा है और दे रहा है। भारत ने जब अपनी सुरक्षा की दृष्टि से उन प्रशिक्षण केन्द्रों को समाप्त करना चाहा, तो अमरीका ने सदा ही अपनी टांग अड़ाई है और कहा है कि वहां आतंकवादियों के होने का कोई प्रमाण नहीं है। यह दूसरी बात है कि उन्हीं आतंकवादियों के नाम पर उसने पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक तथा अन्य देशों में सैनिक आक्रमण किए हैं। पाकिस्तान ने भी तालिबान और अन्य आतंकवादियों से युद्ध में अमरीका का साथ देते हुए, निरंतर तालिबान की सैनिक सहायता की है। यह शायद अमरीका भी जानता है। चीन ने सदा स्वयं को भारत का मित्र देश कहा है; किंतु यह किसी से छिपा नहीं है कि उसने सदा भारत को दुर्बल करने के लिए पाकिस्तान की सहायता की है। भारत के अनेक प्रदेशों को अपना बता कर उनपर अपना आधिपत्य जमा लिया है। नेफा तथा कश्मीर के कुछ क्षेत्र उसके अधिकार में हैं और वह आज भी अरुणांचल पर अपना अधिकार जताता रहता है। महाभारत' में यही काम इंद्र नामक महाशक्ति कर रही है। कृष्ण और अर्जुन जब खांडव वन में आतंकवादी तक्षक के गुप्त ठिकाने तक पहुंच कर, उसे नष्ट करने ही वाले हैं, इंद्र सीधा हस्तक्षेप करता है; और तक्षक के परिवार को बचा कर ले जाता है।
***
महाभारत में राजसूय यज्ञ का प्रसंग अत्यंत महत्वपूर्ण है। आज अधिकांश आधुनिक बुद्धिजीवी राजसूय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञ को प्राचीन काल की भूली बिसरी घटनाएं कहने में संकोच नहीं करेंगे। किंतु हमें महाभारत में वर्णित इन यज्ञों का सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए। ऐसा लगता है कि छोटे-छोटे राज्यों और प्रजातंत्रों के संकटों को देखते हुए, हमारे ऋषियों ने इन दो यज्ञों का आविष्कार किया। महाभारत में उन दोनों का ही वर्णन है। इन यज्ञों में सम्राट किसी राजा का राज्य नहीं छीनता। वह उससे कर लेकर उसे ही वहां का शासक मान लेता है। इसका लक्ष्य यह है कि सामान्य प्रजा, व्यापारी और तीर्थयात्री देश के एक कोने से दूसरे कोने तक निर्विघ्न जा सकें। छोटे छोटे भूखंडों में स्थापित राज्यों की सीमाओं के कारण किसी प्रजाजन को कष्ट न हो। छोटे-छोटे राजा अपने निजी स्वार्थों के कारण एक दूसरे से व्यर्थ युद्ध न करें; और बाहरी आक्रमणों से बचने में असमर्थ राजा सम्राट की सहायता से और सम्राट के सहायक होकर अपने देश की रक्षा करें। कुछ विद्वानों ने प्राचीन काल में सिकंदर इत्यादि आक्रमणकारियों के विरोध में खड़े किए गए मौर्य साम्राज्य को इसका उदाहरण माना है। आधुनिक युग में भारत, चीन और अमरीका आदि देश इसका उदाहरण हैं, जहां प्रादेशिक सरकारें स्थानीय संदर्भों में स्वाधीन होकर भी एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के अधीन हैं। यूरोपीय यूनियन भी इसी का एक नया रूप है। यहां सारे देश प्रभुसत्ता संपन्न होकर भी, एक संघ बना कर अपने लिए यात्रा, व्यापार और रक्षा की सुविधा का अनुभव कर रहे हैं।
कृष्ण पांडवों को राजसूय यज्ञ के लिए तैयार करते हैं। इस यज्ञ के माध्यम से इंद्रपस्थ राज्य तो शक्तिशाली होगा ही, किंतु इसको निमित्त बना कर वे देश के अधर्मी राजाओं की शक्ति को समाप्त कर देना चाहते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे किसी बड़े युद्ध की घोषणा नहीं करते। कंस का वध वे कर ही चुके थे। अब जरासंध और शिशुपाल का मार्ग से हटाया जाना आवश्यक था। जरासंध 99 राजाओं को बंदी कर, सौवें राजा को बंदी करने के प्रबंध में लगा था, ताकि वह उन सब की बलि देकर स्वयं को महासम्राट घोषित कर सके। उसके कारागार में बंदी 99 राजाओं को बचाने के लिए भी जरासंध का वध आवश्यक था। किंतु जरासंध से युद्ध का अर्थ था, जरासंध मंडल के सारे राजाओं से युद्ध - एक प्रकार का विश्वयुद्ध, असंख्य मनुष्यों का संहार। कृष्ण जरासंध का वध तो चाहते हैं; किंतु वे राजाओं के व्यक्तिगत अहंकार के कारण व्यापक जनसंहार नहीं चाहते। अत: सीधे-सीधे जरासंध पर आक्रमण न कर अथवा उसे युद्ध का निमंत्रण न देकर, वे युक्तिपूर्वक उसे अकेले भीम से मल्लयुद्ध करने को तैयार कर लेते हैं और उसमें भीम उसका वध कर डालता है। महाभारत में स्पष्ट उल्लेख है कि जरासंध के वध के पश्चात् कृष्ण ने मगध के सिंहासन पर जरासंध के पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया; और कारागार में बंदी सारे राजाओं को मुक्त कर दिया। इस प्रकार राजसूय यज्ञ होने से पूर्व ही वे सारे छोटे और निर्बल राजा मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से अपनी प्रजा का पालन करने लगे।
शिशुपाल का वध राजसूय यज्ञ के अवसर पर राजाओं की भरी सभा में कृष्ण ने स्वयं अपने सुदर्शन चक्र से किया। जरासंध के मित्र और सहयोगी शिशुपाल का वध, धर्म की रक्षा के लिए भी आवश्यक था। वह भविष्य में पांडवों का असहयोगी, विरोधी अथवा शत्रु भी हो सकता था; किंतु उससे भी महत्वपूर्ण एक कारण और है। धर्म-राज्य की स्थापना का पहला लक्षण दुबर्ल प्रजा के जीवन और सम्मान की रक्षा है। नारी को सदा ही पुरुषों की तुलना में अधिक रक्षणीय माना गया है। राजाओं की इस सभा में शिशुपाल आरंभ से ही अग्रपूजा के संदर्भ में अभद्र व्यवहार कर रहा था। कुरुवृद्ध भीष्म ने अग्रपूजा के लिए कृष्ण का नाम प्रस्तावित किया था। शिशुपाल को यह किंचित् भी स्वीकार्य नहीं था। वह इसका विरोध करते हुए गाली-गलौच तक उतर आया था। वह कृष्ण को ही नहीं, भीष्म को भी अनेक अपशबद कह बैठा था; किंतु न तो युधिष्ठिर और पांडवों ने अभी तक उसे मौन कराने के लिए कोई प्रभावशाली पग उठाया था, न भीष्म ने अपनी रक्षा के लिए कुछ कहा या किया था, न कृष्ण ही कुछ बोले थे; किंतु कृष्ण को अपशब्द कहते-कहते, शिशुपाल ने जैसे ही रुक्मिणी को अपनी वाग्दत्ता पत्नी कहा, कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका शीश्ा काट डाला।
नारियों की स्वायत्ता, स्वतंत्रता और सुरक्षा में कृष्ण के जीवन से अनेक प्रसंग लिए जा सकते हैं। रुक्मिणी की प्रार्थना पर उसके पिता ओर भाई के अत्याचारों से उसकी रक्षा करने के लिए कृष्ण तत्काल पहुंचे थे। भौमासुर के अवरोध में बंदी सोलह सहस्र स्त्रियों को भी उन्होंने मुक्त कराया था। किंतु वे सारे प्रसंग महाभारत के नहीं हैं। महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण के समय कृष्ण स्वयं वहां नहीं पहुंचे थे, किंतु उसकी रक्षा के पीछे कृष्ण ही थे। उस प्रसंग को लोग भक्ति और चमत्कार का प्रसंग भी मानते हैं; किंतु मेरे लिए स्त्री के सम्मान की रक्षा का वह एक महत्वपूर्ण प्रसंग है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना किसी भी युग में हो सकता है।
***
पांडव अपनी प्रगति और समृद्धि से संतुष्ट थे। ऐसा लगता है कि पृथक् हो जाने पर भी अभी तक युधिष्ठिर और उनके भाई कौरवों और पांडवों में भेद नहीं करते थे। वे उसे एक ही परिवार मानते थे। भीष्म उनके दादा थे और धृतराष्ट्र को वे अपना पिता ही मानते थे। शायद यही कारण था कि राजसूय यज्ञ से पूर्व दिग्वजिय के लिए पांडव सेना हस्तिनापुर नहीं गई। अपने ही राज्य को क्या जय करना या उससे क्या कर लेना। हस्तिनापुर से सारे महत्वपूर्ण लोगों को, राजसूय यज्ञ के उस उत्सव में बुलाया गया और उन्हें महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गए। उस समय कौरवों के पारंपरिक शत्रु पांचालों का कोई प्रतिनिधि इंद्रप्रस्थ में दिखाई भी नहीं देता, जबकि वह साम्राज्ञी द्रौपदी का मायका है। कदाचित् यह सब भीष्म, द्रोण तथा धृतराष्ट्र को प्रसन्न करने के लिए किया गया। यहां राजनीति नहीं, पांडवों का अपने परिवार की एकता बनाए रखने का प्रयत्न दिखाई देता है। धृतराष्ट्र तो अंधा है, वह कुछ देख नहीं पाता, किंतु हस्तिनापुर जैसे समृद्ध राज्य का स्वामी होते हुए भी दुर्योधन पांडवों की समृद्धि झेल नहीं पाता। वह ईर्ष्या से जल उठता है और उसका लोभ उसे भयंकर कृत्यों की ओर प्रेरित करता है। एक व्यक्ति की इर्ष्या, द्वेष और लोभ तो मनोविज्ञान का क्षेत्र है, जो किसी भी देश और काल में प्रासंगिक है; किंतु यदि वह राजनीति का अंग बन जाए तो वह भयंकर युद्धों को जन्म देता है। हमने अपने ही काल में देखा है कि हिटलर की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, ईर्ष्या तथा द्वेष ने विश्व को द्वितीय महायुद्ध की ओर धकेल दिया था। मुझे हिटलर और दुर्योधन एक दूसरे के पर्याय ही लगते हैं, जो अपनी व्यक्तिगत तृष्णाओं से प्रेरित होकर संसार में महाविनाश को जन्म देते हैं।
दुर्योधन अपनी दूषित मानसिकता और लोभी चरित्र के कारण, सच्चे-झूठे बहाने बना कर अपने पिता को बाध्य करता है कि वे युधिष्ठिर को द्यूतसभा में आने का आदेश दें। धृतराष्ट्र वही करता है। युधिष्ठिर द्यूत के सर्वथा विरोधी होते हुए भी धृतराष्ट्र - जिसे वे अपना राजा और पिता दोनों ही मानते हैं - के आदेश से बाध्य होकर, द्यूत-विद्या से सर्वथा अनभिज्ञ होते हुए भी, खेलने बैठ जाते हैं। द्यूत के नियमों और धृतराष्ट्र के आदेश से बंध कर वे अपना राज्य ही नहीं, अपने भाइयों को, स्वयं अपने-आप को; और फिर शकुनि के आग्रह से बाध्य होकर द्रौपदी को भी हार जाते हैं। महाभारत में चित्रित द्यूत के प्रसंग को समग्रता में देखें तो समझ में आता है कि किस प्रकार लोभ से अन्याय का जन्म हुआ; और अन्याय तथा अत्याचार से उत्पन्न समस्याओं ने युद्ध की स्थिति उपस्थित कर दी।
पांडवों ने द्यूत में हार के फलस्वरूप राज्य की क्षति, अपना और द्रौपदी का सारा अपमान स्वीकार किया। बारह वर्षों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास अंगीकार किया। उसके सारे झंझट झेले, सारे कष्ट सहे, सारी शर्तें धर्मपूर्वक पूरी कीं, किंतु समर्थ होते हुए भी युद्ध के विकल्प को अंगीकार नहीं किया। यदि पांडव भी दुर्योधन के अनुरूप अधर्म को अंगीकार कर लेते तो कदाचित् द्यूतसभा में ही रक्तपात हो जाता। किंतु युधिष्ठिर ने स्वयं को तथा अपने भाइयों को नियंत्रण में रखा। स्वयं अपमान और कष्ट सहन कर के भी शांति को बचाए रखने का प्रयत्न किया। आज का भारत भी अनेक बार चीन जैसी विश्व शक्ति से ही नहीं, पाकिस्तान, बांगलादेश, नेपाल और म्यांमार जैसे छोटे और दुर्बल देशों से अपमानित होकर भी शांति बचाए रखने की नीति को अपनाता आया है। अनेक बार इस प्रकार के व्यवहार को भारत की कायरता भी मान लिया गया है, जैसे दुर्योधन ने पांडवों की नीति को उनकी असमर्थता मान लिया था।
***
राजधर्म का एक अंग युद्ध भी है। महाभारत एक ऐसा ग्रंथ है, जिसके केन्द्र में सर्वप्रमुख घटना कौरवों और पांडवों का युद्ध है। अत: महाभारत को एक प्रकार से युद्ध का ग्रंथ ही माना जाता है। किंतु रोचक तथ्य यह है कि कौरवों और पांडवों के मंच से हट जाने के पश्चात् अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए जनमेजय, एक नागयज्ञ करता है, जिसमें चुन-चुन कर नागों को जलाया जा रहा है। उस कथा की भूमिका स्वरूप डुंडुभ की कथा में अहिंसा को परम धर्म के रूप में स्थापित किया गया है। उसी संदर्भ में आस्तीक की कथा भी है, जो नागों के पक्ष से जनमेजय से वर मांग कर नागों की रक्षा करता है। वेदव्यास अपने शिष्यों के साथ यज्ञ-स्थल पर पहुंचते हैं। वे भी जनमेजय को इस युद्ध के लिए प्रोत्साहित नहीं करते। वे मानते हैं कि युद्ध से किसी समस्या का समाधान नहीं होता। जनमेजय के पूर्वजों ने युद्ध किया था; किंतु विनाश के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं हुआ। अहिंसा को व्यास ने भी परम धर्म माना है। ध्यातव्य है कि जनमेजय सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली है और वह नागों का संहार कर रहा है, फिर भी उसे निर्बलों और निरीह नागों को मार कर अपना प्रतिशोध लेने के लिए समर्थन नहीं मिलता।
आज, हमारे युग में भी संसार की सबसे बड़ी और भीषण समस्या भयंकर युद्धों की है। दो विश्व महायुद्धों की विभीषिका देख लेने के पश्चात् संसार के शांतिप्रिय चिंतकों ने इस विषय में बहुत सोचा-विचारा है। इसलिए हमारे लिए व्यास का चिंतन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। आज से पांच सहस्र वर्ष पूर्व भी मनुष्य यह जानता था और आज भी जानता है। तो भी संसार में निरंतर कहीं न कहीं युद्ध हो ही रहे हैं। वे क्यों हो रहे हैं; और उनका समाधान क्या है ? महाभारत इन दोनों ही प्रश्नों का उत्तर देने वाला प्रामाणिक और प्रासंगिक ग्रंथ है।
यह सत्य है कि महाभारत में एक महायुद्ध का भयंकरतम वर्णन किया गया है; किंतु युद्ध का पक्ष कहीं नहीं लिया गया। उसे मनुष्य की समस्याओं के समाधान के रूप में स्थापित नहीं किया गया है। अहिंसा को ही सदा उच्चतम धर्म का स्थान दिया गया है; किंतु न्याय, दुष्ट-दलन तथा आत्मरक्षा के लिए आपात् स्थिति में युद्ध की अनिवार्यता को भी मान्यता दी गई है। युद्ध संबंधी विभिन्न पक्षों पर जितना विचार महाभारत में किया गया है, शायद ही कहीं किया गया हो। युद्ध के कारण, उसके दुष्परिणाम, युद्ध-त्याग की नीति के दुष्परिणाम, विनाश के मूल्य पर भी उसकी अनिवार्यता इत्यादि अनेक प्रश्न आज भी इतने प्रासंगिक हैं कि लगता ही नहीं कि हम पांच सहस्र वर्ष पूर्व के चिंतन को पढ़ रहे हैं। महाभारत व्यक्तिगत जीवन की सुख-शांति के लिए सांसारिक प्रलोभनों के मध्य संयम को महत्व देता है। काम-क्रोध, लोभ-मोह का विरोध करता है और धर्म की स्थापना करता है, ताकि वह व्यक्ति, समाज के लिए अशांति का कारण न बने।
द्यूत की पराजय की सारी शर्तों को धर्मपूर्वक पूर्ण कर पांडव, दुर्योधन से अपना राज्य वापस मांगते हैं; किंतु दुर्योधन उनका राज्य लौटाने से स्पष्ट इंकार कर देता है। इन तेरह वर्षों में जब असहाय पांडव वन तथा विराटनगर में तपस्यापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे, दुर्योधन संसार भर की दुष्ट शक्तियों को एकत्रित कर, युद्ध की तैयारी कर चुका था। बलपूर्वक दूसरे के धन, संपत्ति और राज्य पर अधिकार कर लेना उसकी नीति थी। बलप्रयोग और हिंसा उसके उपकरण थे।
पांडव युद्ध नहीं चाहते, अत: द्रुपद अपने पुरोहित को शांतिदूत के रूप में दुर्योधन के पास भेजते हैं; किंतु दुर्योधन शांतिवार्ता को अस्वीकार कर देता है। कृष्ण पांडवों की सहायता की चर्चा करते हैं तो उनके अपने ही बड़े भाई बलराम उनके प्रस्ताव के विरोधी हो जाते हैं। कृष्ण भी उप्पलव्यनगर से उठकर द्वारका आ जाते हैं; किंतु सैन्य संग्रह उससे रुकता नहीं। दुर्योधन ही पहले कृष्ण से सैन्य-सहायता प्राप्त करने आ जाता है। उसकी स्पष्ट घोषणा है कि युद्ध कर के राज्य ले सकते हो, तो ले लो। शांतिपूर्वक राज्य लौटाया नहीं जाएगा।
युद्ध की सारी तैयारियां हो जाने पर भी कृष्ण युद्ध को रोकने के लिए, अंतिम प्रयत्न करने के लिए, शांतिदूत के रूप में स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं। यह वह समय है, जब पांडव अपने पूरे राज्य के स्थान पर पांच ग्राम ले कर भी संधि कर लेने को सहमत हैं। दुर्योधन सूई की नोक बराबर भूमि देनी ही अस्वीकार नहीं करता, शांतिदूत कृष्ण को बंदी करने का प्रयत्न भी करता है।
दुर्योधन के कामुक अहंकार ने द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने का प्रयत्न किया और स्वतंत्र भारत में तमिलनाड की विधान सभा में जयललिता का उसी प्रकार का अपमान करने का प्रयत्न किया गया। धृतराष्ट्र अपने पुत्र के मोह में किस प्रकार पाप में लिप्त होता रहा - यह हम जानते हैं ; और स्वतंत्र भारत के एक प्रधान मंत्री नरसिंहा राव को जब बताया गया कि उनका पुत्र यूरिया-कांड के संदर्भ में धन के लोभ में भ्रष्ट आचरण कर रहा है, जो देश के प्रति अपराध भी है, तो उन्होंने उसे सत्य मानने से इंकार कर दिया। मुझे अंधे धृतराष्ट्र और नरसिंहा राव में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
***
यह महाभारत का यथार्थ है। राजसभाओं में दस्यु, अपराधी और गुंडे आ बैठे और मनुष्य की हीनवृत्तियां शक्तिशाली हो उठीं। पाप और भ्रष्ट आचरण राजसिंहसन पर आसीन हो गए; और धर्म को भूखे-प्यासे नंगे पैरों वन-वन भटकना पड़ा। किंतु कृष्ण निरंतर धर्म की स्थापना में लगे हैं। दुर्योधन की तृष्णा, मोह, अहंकार और राक्षसी महत्वाकांक्षा ने पांडवों का राज्य लौटाने से इंकार कर दिया। महाशक्तियों के अपने ही नियम होते हैं। वे न्याय और समता पर आधृत न हो कर उनकी शक्ति और सुविधा से प्रेरित होते हैं। महाभारत का कहना है कि युद्ध में नियमों का पालन केवल दुर्बल पक्ष करता है। भारत में पाकिस्तानी आतंकवाद कितना भी संहार करता रहे, अमरीका उसे मानने को तैयार न था न है; किंतु 'वर्ल्ड ट्रेड सेंटर' पर एक आक्रमण के पश्चात् वह अलकायदा से लड़ने के लिए सारी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को भूल कर अफगानिस्तान तक पहुंच जाता है। अपने एक संदेह मात्र के कारण वह इराक को ध्वस्त कर देता है। दुर्योधन भी अपने समय की ऐसी ही महाशक्ति है।
जब अधर्म, अन्याय और राक्षसी अहंकार इस सीमा तक बढ़ जाए तो युद्ध हो या न हो ? वस्तुत: महाभारत इसी प्रश्न पर विचार करता है। चीन यदि तिब्बत में से अपनी सेनाएं नहीं हटाता, तो तिब्बत क्या करे ? असमर्थ है तो अपमान और दासता की पीड़ा भोगता रहे; किंतु यदि किसी समय वह समर्थ हो जाए, तो क्या तब युद्ध को रोका जा सकता है, या रोका जाना चाहिए ?
महाभारत युद्धशास्त्र नहीं है, किंतु धर्मशास्त्र वह अवश्य है; और कृष्ण धर्म के प्रतिनिधि है। जहां कृष्ण हैं, वहीं धर्म है। इसलिए पांडवों द्वारा दुर्योधन के अधर्म और अत्याचार को स्वीकार नहीं किया जाता। वस्तुत: पांडव निर्बल होने के कारण धर्म की बात नहीं कर रहे। वे समर्थ होकर भी धर्म का मार्ग नहीं छोड़ते। न्याय प्राप्त करने के लिए, धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में सेनाएं सज जाती हैं। अर्जुन अपने मित्र, गुरु और सारथी कृष्ण से कहता है कि वे उसका रथ ले जा कर दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दें, ताकि वह एक बार देख ले कि उसके विरुद्ध, पापी दुर्योधन के पक्ष से लड़ कर अपने प्राण गंवाने कौन-कौन आया है। कृष्ण वैसा ही करते हैं। अर्जुन दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा होकर देखता है कि दोनों पक्षों में संसार भर के योद्धाओं में उसके अपने सगे संबंधी भी खड़े हैं। युद्ध की विभीषिका उसके मन को फिर से सम्मोहित कर देती है - युद्ध हुआ तो ये सारे जन मारे जाएंगे। परिणामत: अर्जुन शांति का अंतिम प्रयत्न करता है।
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेय: भोक्तुम् भैक्ष्यम् अपि इह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिर प्रर्दिधान।।
''धन की इच्छा से गरुओं की हत्या कर, उनके रक्त से भीगे, भोगों से तो अधिक श्रेयस्कर, इस लोक में भिक्षा मांग कर जी लेना है।'' अर्जुन की यह उक्ति, उन लोगों का पक्ष है, जो किसी भी मूल्य पर शांति चाहते हैं। इससे शांति तो बनी रह सकती है; किंतु तब धर्म, न्याय, समता-समानता, और आत्मरक्षा के अधिकार का क्या होगा ? धर्म के राज्य का क्या होगा ? अर्जुन युद्ध के परिणाम की कल्पना से ही इतना विचलित है कि वह निश्चय करता है कि अपने अधिकारों के लिए, सत्य, न्याय और धर्म के लिए भी, वह युद्ध नहीं करेगा। युद्ध से बचने का एक मार्ग यह भी है। किंतु धर्म-संस्थापक श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं।
महाभारत के नायक युधिष्ठिर हैं; किंतु कृष्ण एक ऐसे महानायक हैं कि उनकी उपस्थिति ही नहीं, चर्चा भी उन्हें सर्वप्रमुख पात्र बना देती है; और नायकत्व के जितने गुण उनमें हैं, वे कहीं और खोज सकना संभव ही नहीं है। वे ही कृष्ण युद्ध की मूल प्रेरणा हैं। जिस युधिष्ठिर के राज्य के लिए यह युद्ध होना था, वे युधिष्ठिर ही युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। जिस अर्जुन के बल पर पांडवों को यह युद्ध लड़ना था, वह अर्जुन अपना गांडीव त्याग, हताश होकर बैठ चुका था। उसे युद्ध नहीं करना था। जिन यादवों का सबसे बड़ा सहारा था, उन यादवों में से, एक सात्यकि को छोड़, लड़ने के लिए कोई नहीं आया। न कृष्ण के पुत्र, न कृष्ण के भाई। तो महाभारत का युद्ध कौन लड़ रहा था ? कृष्ण ? अकेले कृष्ण ? जिनके हाथ में अपना कोई शस्त्र नहीं था ? वे कृष्ण हिंसा के नहीं, प्रेम के पुंजीभूत स्वरूप हैं; किंतु वे जहां हिंस्रत्व का विरोध करते हैं, वहीं क्लीवता को भी धिक्कारते हैं। इसलिए उनका उत्तर है :
''कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम।
अनार्य जुष्टम् अस्वर्ग्यम् अकीर्ति करम् अर्जुन:।।
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ, नैतत्त्वय्यपपद्यते।
क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंपतप।।''
''अर्जुन, इस कठिन समय में अनार्य आचरण वाला, नरक और अपकीर्ति देने वाला, यह मोह तुममें कहां से उत्पन्न हो गया है। क्लीव मत बन। यह तुम्हारे योग्य नहीं है। हे परंतप, हृदय की इस क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़ा हो।''
धर्म के लिए गीता ने गांडीव उठाने का संदेश दिया है। आत्मरक्षा धर्म है; किंतु युद्ध का यह आह्वान केवल आत्मरक्षा तक ही सीमित नहीं है। यह अन्याय और अधर्म के विरुद्ध युद्ध है। इसलिए इसमें अधर्म और अन्याय के पक्षधर अपने रक्त-संबंधियों का भी विरोध है। यह रक्त-संबंध को भूल कर धर्म के लिए युद्ध है। यह भी ध्यातव्य है कि युद्ध के मूल में घृणा, ईर्ष्या या वैर नहीं, धर्म और न्याय का भाव है। युद्ध का लक्ष्य धर्म-स्थापना की आकांक्षा है।
स्पष्ट है कि पांडवों के पक्ष से युद्ध न करने के जितने उपाय हो सकते थे, वे सब कर चुके थे; किंतु दुर्योधन के हठ के कारण युद्ध रुक नहीं पाता। महाभारत का स्पष्ट संकेत है कि धर्मभीरु लोग, युद्ध से जितना बच सकते हैं, बचते हैं; किंतु अधर्मी, अन्यायी और अत्याचारी पक्ष, प्रेम और संधि की भाषा नहीं समझता। ऐसे में मानवता के पास दो ही उपाय हैं : अधर्म और अन्याय के सम्मुख सिर झुका दे तथा अपना सर्वस्व त्याग कर भिक्षुक या दास हो जाए; या फिर युद्ध के लिए शस्त्र उठा ले।
कृष्ण अर्जुन को गांडीव उठाने को कहते हैं। युद्ध करने को कहते हैं। उन परिस्थितियों में शांति की इच्छा को मोह और क्लीवता कहते हैं। धर्म की स्थापना के लिए वह शांति श्रेयस्कर नहीं है, जो न्याय के शव पर खड़ी हो। ऐसे समय में युद्ध ही श्रेयस्कर है। शांति की कामना, कायरता का नाम नहीं है। अत: हम कह सकते हैं कि महाभारत अहिंसा को उच्चतम और चरम धर्म मानते हुए भी अन्याय और अधर्म को स्वीकार करने वाली कायरता का पक्ष नहीं लेता।
महाभारत में, और स्पष्ट कर कहें, तो भगवद्गीता में यहां से एक नया अध्याय आरंभ होता है। अर्जुन का मोह दूर करने के लिए कृष्ण उसे अपना विराट रूप दिखाते हैं। वे अर्जुन के सम्मुख पहली बार प्रकट करते हैं कि वे सामान्य मनुष्य न होकर, स्वयं नारायण हैं। वे यह भी कहते हैं कि वे महाकाल हैं और इस समय विनाशोन्मुखी हैं। उन्होंने कौरवों के सारे योद्धाओं को पहले ही मार दिया है। आततायी अपने पाप से मारा जाता है, अत: दैवी नियम मृत्यु का क्षण पहले ही निर्धारित कर देते हैं। अर्जुन को केवल निमित्त ही बनना है। यहां दैवी नियमों का हस्तक्षेप होता है।
अर्जुन को कृष्ण का अपने शत्रुओं के विरुद्ध लड़ने का आदेश स्वाभाविक सांसारिक नियम है। उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। किंतु महाभारत की विशेषता यह है कि कृष्ण कह रहे हैं कि मैं इन सब लोगों को पहले ही मार चुका हूं, तुम केवल निमित्त हो। इन्हें मारो और यश प्राप्त करो। अर्जुन अपने सामने खड़े उन योद्धाओं को महाकाल के दांतों तले पिसते हुए देखता है। यह न सांसारिक तर्क है, न व्यावहारिक स्थिति है। आज के एक साधारण बौद्धिक तार्किक व्यक्ति के लिए इसको स्वीकार कर पाना कठिन होगा।
तो पहले हम महाभारत की बात समझें। महाभारत के अनुसार यह सारी सृष्टि ऋत् के नियम के अधीन है। यह सिद्धांत कहता है कि 'आततायी अपने पाप से मारा जाता है।' जब पाप मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगता है, तो प्राकृतिक नियमों के अंतर्गत उसके नाश का समय आ जाता है। उसे समाप्त होना ही है, उसके लिए निमित्त चाहे कोई बने।
हमारी बुद्धि इसके लिए प्रमाण मांगती है। प्रमाणों की कमी नहीं है। किसने सोचा था कि भारत में ऐसा शक्तिशाली मुगल साम्राज्य अंत में दिल्ली के लाल किले तक सीमित हो जाएगा और अंग्रेज अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के राजकुमारों के सिर काट कर थाली में सजा कर उसके सम्मुख प्रस्तुत कर देंगे। किसने सोचा था कि जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, वह अंतत: इस प्रकार सिमटता जाएगा और अंग्रेज ही अपने देश में रहना पसंद नहीं करेंगे। आज उसी इंग्लैंड के अध्यापक अपना इतिहास अपने बच्चों को पढ़ाने में लज्जा का अनुभव करते हैं। हम इतिहास पर दृष्टि डालें। सोवियत रूस आधी शताब्दी तक संसार की एक महाशक्ति था; और फिर एक दिन जैसे अपने ही बोझ से दब कर गिर गया और समाप्त हो गया। नेपोलियन हो या हिटलर, उनका अंत होने पर आया, तो चुटकियों में जैसे स्वत: ही हो गया। मैं ईरान के शाह के अंतिम दिनों की बात सोचता हूं। इतना शक्तिशाली सम्राट् देश से निष्कासित हुआ और उसके पक्ष से एक गोली भी नहीं चली, एक सैनिक भी नहीं लड़ा। इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां किसी शक्तिशाली व्यक्ति अथवा राष्ट्र को धराशायी होते हुए देख कर आश्चर्य होता है कि ऐसा संभव कैसे हुआ। इसी प्रक्रिया को समझने के लिए हमें श्रीकृष्ण की उस उक्ति पर विचार करना होगा। आततायी अपने पाप से मारा जाता है। उसका पाप उसको मार चुका होता है; और प्रकृति का निमित्त बन कर, अथवा बहाना बनकर, कोई भी साधारण सी शक्ति उसे नष्ट कर देती है। कोई भी घटना पहले सूक्ष्म रूप से घटित होती है और फिर उसका स्थूल रूप प्रकट होता है।
***
युद्ध की समस्या से निबटने अथवा मानवता को विनाश से बचाने के लिए महाभारत का स्पष्ट संदेश है कि उस स्थिति के आने को रोकने के लिए, व्यक्ति और समाज के धरातल पर ऐसा कोई कर्म न किया जाए, जो अधर्म हो, जो किसी और को वंचित और पीडि़त करता हो। अत: संयम, संतोष, समता, न्याय इत्यादि का शिक्षण और संस्कार मनुष्य को उसके शैशव से ही दिया जाना चाहिए। पांडव हिमालय में ऋषियों के आश्रय में पले थे, अत: उनका व्यवहार संयत और मर्यादित था। वे बिना राज्य के भी संतुष्ट थे। अपने अधिकार से कम पा कर भी वे मानव-रक्त बहाना नहीं चाहते थे। शक्तिशाली होने पर भी वे बल-प्रयोग करने को आतुर नहीं थे। युद्ध होने पर, आज के परमाणु शस्त्रों के समान शक्तिशाली देवास्त्रों के स्वामी होते हुए भी, उन्होंने कभी उनका प्रयोग नहीं किया। अर्जुन जब शस्त्रास्त्रों के महान् ज्ञाता और निर्माता महादेव शिव से पाशुपतास्त्र लेकर लौटा है; और उसके भाई उसका प्रदर्शन देखना चाहते हैं, उस समय भी ऋषियों के आदेश पर उसका प्रदर्शन स्थगित कर दिया जाता है; क्योंकि प्रदर्शन भी विनाश ही करता, जैसे आज भी परमाणु अस्त्रों के प्रयोग प्रकृति को आहत ही करते हैं। पांडवों ने अन्य भी किसी युद्ध में इन दिव्यास्त्रों और देवास्त्रों का प्रयोग नहीं किया। महाभारत के युद्ध में भी भीष्म, द्रोण और अश्वत्थमा के द्वारा भयंकर रूप से विनाशकारी अस्त्रों के प्रयोग करने पर भी पांडवों की ओर से उनका प्रयोग नहीं किया गया। 'नारायणास्त्र' के सामने भी वे शांत ही रहे। युद्ध के अंत में जब अश्वत्थामा ने ब्रह्मशिर का प्रयोग किया तो उसको काटने के लिए अर्जुन ने ब्रह्मास्त्र प्रकट किया; किंतु तत्काल की ऋषियों ने प्रकट होकर उसे लौटा लेने के लिए कहा। अर्जुन ने तनिक भी विरोध नहीं किया और अपना ब्रह्मास्त्र लौटा लिया; जबकि अश्वत्थामा ने अपना शस्त्र लौटाने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। द्वितीय महायुद्ध में अमरीका ने जापान पर ऐटम बम गिराए और मानवता की आत्मा कांप उठी। तब से आज तक सब लोग यही सोच रहे हैं, कि कोई भी राष्ट्र ऐसा राक्षसी कृत्य न करे। अश्वत्थामा आज तक अपनी राक्षसी हिंसा का परिणाम क्षत-विक्षत पशु के रूप में भुगत रहा है; हमें देखना है, कि अमरीका से उसका इतिहास कब प्रतिशोध लेता है।
आसक्ति, भोग, मोह, लोभ, अहंकार इत्यादि की कथा शांतनु से ही आरंभ हो जाती है। शांतनु की कामुकता के कारण भीष्म विवाह से वंचित हुए, और परिणामत: धृतराष्ट्र जैसा मोहासक्त और पाप का मूल व्यक्ति उत्पन्न हुआ। उसने अपने पुत्रों को अधर्म के मार्ग पर चलने से कभी नहीं रोका। उसके विपरीत वह उनकी दुष्टताओं को देख-देख कर प्रसन्न होता रहा और उनकी सफलता की कामना करता रहा। फलत: उसके पुत्र अपनी राक्षसी वृत्तियों का विकास करते रहे। उसका परिणाम था, महाभारत का युद्ध और अंतत: उन सबका सर्वनाश।
हमें आज अपना युग कितना भी भिन्न क्यों न प्रतीत होता हो; किंतु प्रकृति के नियम और मनुष्य की स्वभाव आज भी वही है। हम त्रिगुणातमक प्रकृति के तमोगुण और रजोगुण से मुक्त नहीं हुए हैं। महाभारत की स्पष्ट मान्यता है कि धर्म, नैतिकता अथवा ऋत् का नियम - परोक्ष रूप से हमारी रक्षा करते हैं। वे प्रकट नहीं होते; किंतु घटनाओं के प्रवाह अथवा उनके परिणामों से हम प्रकृति के संकेत को पहचान सकते हैं। अधर्म का सदा सर्वदा सर्वनाश होता है। इसलिए युद्धों से चाहे मानव की समस्याओं का समाधान न होता हो, किंतु यदि हम धर्म और संयम का मार्ग नहीं अपनाएंगे तो युद्ध की स्थिति आएगी ही और मानवता बड़े से बड़ा नरसंहार देखेगी।
***
अब प्रश्न यह है कि यह कैसे संभव है कि जो योद्धा सामने जीवित खड़े हैं, उन्हें अर्जुन कृष्ण के द्वारा मार दिया गया मान ले ? अर्जुन को समझाने के लिए, कृष्ण सृष्टि के अनेक सत्यों का स्पष्टीकरण करते हैं। ये ही सत्य पहले उपनिषदों में भी वर्णित हैं। जीवन के तात्विक रूप को स्पष्ट करते हुए कृष्ण बताते हैं कि मूल और शाश्वत तत्व - अविकारी आत्मा है। वह न मरती है, न मारती है। शरीर, जो मन-बुद्धि-अहंकार जैसे अनात्म (जड़ तत्व) से निर्मित है, वस्तुत: विकार है, वही परिवर्तित होता है, अत: वही नश्वर भी है। जन्म भी वही लेता है, मरता भी वही है। वही मारता है, वही मरता है। युद्ध के क्षेत्र में सामने खड़े उन शरीरों का अंत कृष्ण सूक्ष्म धरातल पर पहले ही कर चुके हैं।
आत्मा मरती नहीं और शरीर (विकार, अनात्म अथवा जड़ तत्व) के मरने-मारने के मूल में प्रकृति का कर्म-सिद्धांत कार्य कर रहा है। कर्म-सिद्धांत कार्य-कारण सिद्धांत का ही सूक्ष्म और परिष्कृत रूप है। आज के भौतिक विज्ञान में उसी का एक अत्यंत स्थूल रूप न्यूटन का एक्शन-रि-एक्शन का सिद्धांत है। एक्शन ही कर्म है; और रि-एक्शन ही फल या परिणाम है। किंतु प्रकृति का विधान है कि परिणाम फिर से कर्म बन कर अपने परिणाम को जन्म देता है। कर्म तथा फल की अनन्त शृंखला है; और वही कर्म-फल मनुष्य को बांधता है। इसे हम कर्म-बंधन कहते हैं। उसी शृंखला में बंधा जीवन, यह सांसारिक जीवन है, जिसे हम जानते हैं और उसी को यथार्थ मानते हैं।
कर्म-बंधन की इस शृंखला को तोड़ कर, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने का प्रयत्न ही आध्यात्मिक जीवन है। प्रासंगिकता के प्रश्न को लेकर यहां एक समस्या है। हम सामान्य मानव, जो केवल अपनी ज्ञानेद्रियों पर निर्भर हैं, वही देखते, जानते और समझते हैं, जो प्रत्यक्ष हमारे सामने है; अर्थात् हम अपने चर्म-चक्षुओं से केवल स्थूल घटनाओं को ही देख सकते हैं। हम तो अपने रक्त में तैरते कीटाणुओं और अपने आस-पास कार्य करती विभिन्न प्रकार की तरंगों को भी नहीं देख सकते। तो ऐसे में इस सूक्ष्म आध्यात्मिक जीवन की हमारे लिए क्या प्रासंगिकता है ? यह आपत्ति अपने स्थान पर एकदम उचित ही है। किंतु मेरे मन में एक उदाहरण है।
मैं जब विद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहा था तो मेरे मन में गणित के संदर्भ में अनेक प्रश्न थे, जिनका कोई उत्तर मुझे नहीं मिलता था। संख्याओं और उनके जोड़-घटाव, गुणा-भाग में कोई समस्या नहीं थी। उनकी उपयोगिता तो प्रतिदिन प्रमाणित होती थी। पैसे का लेन-देन किसकी समझ में नहीं आता। अपनी चीज़ों की भी गिनती करनी ही होती थी; किंतु अलजबरा, त्रिकोणमिति तथा ज्यामिति जैसे विषय क्यों पढ़ाए जाते हैं ? वे सूत्र और थ्योरम क्यों रटाए जाते हैं ? उनकी उपयोगिता क्या है ? हमारे जीवन में उनकी प्रासंगिकता क्या है ?
आज सोचता हूं तो समझ में आता है कि जो लोग स्कूली पढ़ाई से आगे नहीं बढ़े अथवा उसके पश्चात् विज्ञान के विषय न पढ़ कर अन्य दिशाओं में बढ़ गए, उनके लिए अलजबरा और त्रिकोणमिति का शिक्षण निश्चित रूप से अनावश्यक था। किंतु जो लोग आभियंत्रिकी अथवा विज्ञान संबंधी अन्य विषयों के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च अध्ययन के लिए गए, उनके लिए गणित की वे शाखाएं बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुईं। यदि वे गणित के उन विषयों में पारंगत न होते तो न वे कंप्यूटर का आविष्कार कर पाते, न उसे समझ सकते और न ही उसपर जटिल कार्य कर सकते।
प्रासंगिकता का संबंध यद्यपि तात्कालिकता से जोड़ा जाता है; किंतु ध्यातव्य यह है कि यदि सारे काम तात्कालिक दृष्टि से ही किए जाएंगे, तो मनुष्य का कोई भविष्य नहीं होगा, उसका विकास नहीं होगा, उन्नति नहीं होगी, उच्चतर जीवन नहीं होगा। अध्यात्म को भी जब तक हम समझ नहीं लेते, उसकी आवश्यकता का अनुभव नहीं कर लेते, उसकी स्थिति आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को पढ़ाए जाने वाले अलजबरा के समान ही है। निश्चित रूप से वह मनुष्य के जीवन के भविष्य के विकास के लिए है। वैसे तो हमारी मान्यता है कि वह समस्त जीवों का भविष्य और अंतिम लक्ष्य है; किंतु मैं यह मानता हूं कि उसका महत्व विकसित मस्तिष्क और विकसित आत्मा को ही समझ में आता है। प्रकृति के तीन गुण सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में जीव बंधा है। उस शृंखला को तोड़, रजोगुण और तमोगुण को विलीन कर सतोगुण में स्थित होना ही आध्यात्मिक जीवन का आधार है। वही हमें मोक्ष देता है। वही हमें आत्मसाक्षात्कार कराता है, वही हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है। वस्तुत: यह प्रकृति के अपने खोए हुए संतुलन को प्राप्त करने का ही प्रयत्न है; जीवात्मा का अपने मूल अविकृत रूप - आत्मा - को प्राप्त करने का संघर्ष है; और यह प्रत्येक युग में, प्रत्येक देश में, प्रत्येक जीव के लिए प्रासंगिक है।
***
भारतीय मनीषा की मान्यता है कि यह सृष्टि ऋत् के नियम के अधीन चलती है। इसे अध्यात्म के क्षेत्र में ईश्वर का नियम कह सकते हैं। सामान्य भाषा में इसे प्रकृति के नियम कहा जाएगा। ये वे नियम हैं, जिनका आविष्कार हमारे ऋषियों ने सहस्रों वर्ष पूर्व किया था। आज उनका आविष्कार करने वाले लोग उन्हें वैज्ञानिक नियम कहते हैं। हमारी मान्यता है कि न तो कभी प्रकृति के नियम परिवर्तित होते हैं, न मनुष्य का स्वभाव परिवर्तित होता है। किंतु संसार का परिदृश्य प्रतिदिन बदलता है। यहां कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं है। सत्य यह है कि यह सृष्टि दो तत्वों से मिल कर बनी है। वे तत्व हैं : आत्म (चैतन्य) और अनात्म (जड़)। आत्म अनश्वर है, अत: अविकारी है। अनात्म नश्वर है, अत: निरंतर परिवर्तनीय है।
इस पृष्ठभूमि में प्रसंगकिता भी दो प्रकार की हो जाती है : तात्कालिक प्रासंगिकता और शाश्वत प्रासंगिकता। मुझे ओस्लो आना था। आने के लिए विमान की टिकट चाहिए थी, अत: विमान कंपनियों की प्रासंगिकता मेरे लिए बहुत बढ़ गई। इस समय बोलना है तो माइक्रोफोन की प्रासंगिकता बढ़ गई है। ये सामयिक और तात्कालिक प्रासंगिकताएं हैं। शाश्वत प्रसंगिकता धर्म की है, जो सारी मानवता और मानवेतर प्राणियों के लिए त्रिकाल का सत्य है। वे प्रासंगिकताएं धर्म की प्रासंगिकताएं हैं। उन्हें हम अपने दैनन्दिन जीवन में प्राय: भूल जाते हैं, किंतु समय आने पर उनका स्मरण हो ही जाता है।
***
महाभारत का तीसरा धरातल अध्यात्म का है। वैसे तो वह महाभारत की सारी घटनाओं और चरित्रों में बिखरा हुआ है, किंतु घनीभूत होकर वह भगवद्गीता में ही आया है। यदि संक्षेप में कहें तो श्रीकृष्ण ने इसके माध्यम से ब्रह्म, प्रकृति, सृष्टि, आत्मा, जीवात्मा, जीवन और मोक्ष के संबंध में स्पष्ट रूप से अपने सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। कर्म-सिद्धांत उन में प्रमुख है और अनासक्त भाव से निष्काम कर्म करना उसकी कुंजी है। यही कर्म को अकर्म में परिवर्तित करने का सीधा मार्ग है। कृष्ण ने कर्म-योग, भक्ति-योग तथा ज्ञान-योग का प्रतिपादन किया। कर्म के लिए कर्म, भक्ति के लिए भक्ति और ज्ञान के लिए ज्ञान। उनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं होना चाहिए। इन्हीं सिद्धांतों के प्रतिपादन के कारण भगवद्गीता को संसार के महान् ग्रंथों में से एक माना गया।
जो लोग अध्यात्म के क्षेत्र में अपना विकास कर ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं - ये सिद्धांत उनके लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं। वस्तुत: भारतीय चिंतन मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। जब तक हम पारिवारिक, सामाजिक तथा सांसारिक जीवन तक सीमित रहते हैं, तब तक हमारे लिए धर्म, अर्थ और काम ही प्रासंगिक हैं; किंतु जब हम उनसे आगे बढ़ कर आध्यात्मिक जीवन को अंगीकार करते हैं और मुमुक्षु हो जाते हैं, तब हमारे लिए केवल अध्यात्म ही प्रासंगिक रह जाता है - शेष सब कुछ अनावश्यक हो जाता है।
***
युद्ध की विभीषिका के पश्चात्, उस भयंकर नर-संहार के पश्चात् महाभारत अपनी मूल कथा की ओर लौटता है। कृष्ण को साथ लेकर पांडव भीष्म के पास आते हैं। यद्यपि भीष्म शिखंडी और अर्जुन के बाणों से धराशायी हुए हैं, किंतु उन दोनों के संबंधों में कहीं शत्रुता तो दूर, कटुता भी नहीं है। भीष्म उन्हें राजनीति संबंधी बृहत् ज्ञान देते हैं। अपने जीवन का सार तत्व उन्हें समर्पित करते हैं। स्पष्ट है कि विरोधी पक्षों में होते हुए भी भीष्म जानते हैं कि कृष्ण और पांडव धर्म के मार्ग पर हैं। भीष्म ने अपनी कुछ परिस्थितियों, मान्यताओं और नीतियों के कारण हस्तिनापुर की सेना का नेतृत्व अवश्य किया, किंतु वे भी समझते हैं कि वे पाप को संरक्षण दे रहे थे। यही कारण है कि कृष्ण ने उनके वध का आग्रह किया। यदि भीष्म और द्रोण का वध न किया जाता तो दुर्योधन के पाप और अधर्मपूर्ण राज्य को समाप्त नहीं किया जा सकता था। अधर्म को संरक्षण देने वाला भी अधर्म का भागी है, अत: वह भी दंडनीय है। अब पांडव उस मोड़ पर आ खड़े हुए हैं, जहां वे स्वर्गारोहण भी कर सकते हैं और संसारारोहण भी। प्रत्येक चिंतनशील मनुष्य के जीवन में एक वह स्थल आता है, जब उसका बाहरी महाभारत समाप्त हो जाता है और वह अस्तित्व के उच्चतर प्रश्नों के आमने सामने आ खड़ा होता है।
महाभारत का स्वप्न धर्म-राज्य की स्थापना है। अत: धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर धर्म राज्य की स्थापना करते हैं। ज्ञातव्य है कि पांचों पांडव और कृष्ण अपने जीवन भर के शत्रु दुर्योधन के माता-पिता - धृतराष्ट्र और गांधारी - से भी मिलने जाते हैं। उनका कोप सहन करते हैं। उसपर भी युधिष्ठिर अपने ताऊ धृतराष्ट्र से कहते हैं कि राज्य पहले भी उनका ही था, अब भी उनका ही है। वे चाहें, उसे स्वयं ग्रहण करें, अथवा किसी और को दे दें। स्पष्टत: कोई युद्ध-विजेता ऐसा प्रस्ताव नहीं कर सकता; किंतु महाभारत की प्रासंगिकता उसकी आदर्श आचार-संहिता में है। राज्य महत्वपूर्ण नहीं है; महत्वपूर्ण है धर्म। संपूर्ण राजनीति का निचोड़ यही है। युधिष्ठिर अपने ताऊ और ताई को अपने घर ले जाते हैं; और उनकी देख-भाल करते हैं। किंतु राजोगुणी भीम को यह बात तनिक भी प्रीतिकर नहीं है; और उसके कटु वचनों से पीडि़त होकर धृतराष्ट्र वनवास करने का निश्चय करता है।
महाभारत ही नहीं, संपूर्ण भारतीय चिंतन ही मानव जीवन को चार चरणों में विभक्त करता है, जिन्हें हम आश्रम कहते हैं। उस योजना में गृहस्थाश्रम के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम है। इसका अर्थ है, संसार के आकर्षणों और भोगों को स्वेच्छा से त्यागने का प्रयत्न, ताकि अंत में वृद्धावस्था और मृत्यु जब बलात् वह सब किसी से छीन ले, जो उसे प्रिय है, तो उसे उसका कष्ट न हो। यह धृतराष्ट्र का स्वैच्छिक वानप्रस्थ नहीं है; किंतु परिस्थितियों की बाध्यता में वह उसे स्वीकार करता है।
इस वनवास में विदुर और कुंती भी उनके साथ वन में चले जाते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह कुंती, जिसने आजीवन धृतराष्ट्र-गांधारी तथा उनके पुत्रों के हाथों मरणांतक कष्ट पाया था, वह अपने पुत्रों के विजय के क्षण में उनके राजसी भोगों का सुख भोगने को उनके साथ नहीं रहती, वह अपने जेठ और जेठानी की सेवा करने के लिए उनके साथ वनवास करती है। यह जीवन का आदर्श रूप है, जहां वह अपने शत्रुओं को उनके सारे अत्याचारों के लिए क्षमा ही नहीं कर देती, उनकी सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेती है। आत्मा के उत्थान के लिए ऐसा आदर्श अन्यत्र कहीं भी खोजना अत्यंत कठिन है। महाभारत घृणा, वैर, प्रतिशोध जैसे मानवीय गुणों को भी अनावश्यक घोषित कर देता है। और इसी क्रम में अंतत: जनमेजय भी आस्तीक को वर देकर अपने घोरतम शत्रु तक्षक को भी क्षमा कर देता है। किंतु ध्यातव्य है कि यह समर्थ लोगों द्वारा दिया गया क्षमा का दान है। दुर्बलता, असहायता अथवा असमर्थता में संत बनने का प्रयत्न नहीं है। इस प्रकार महाभारत समर्थ और शक्तिशाली बन कर जीवन को धर्मपूर्वक जीने की कला सिखाता है। यदि हम उसकी प्रासंगिकता को समझ सकें तो हम आज भी अपने संसार को कहीं अधिक सुखी और सुंदर बना सकेंगे। (फाल्गुन कृष्ण एकम् 2064/ 22.2.2008)
- नरेन्द्र कोहली , 175 वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली-110034
नल दमयंती, सावित्री-सत्यवान, दुष्यंत-शकुंतला इत्यादि
विदुर नीति, भगवद्गीता, अनुगीता, शांतिपर्व में राजनीतिक चिंतन इत्यादि
. 132- 137, उद्योगपर्व, महाभारत।
. 10/49/10, श्रीमद्भागवत महापुराण।
. 137- 163, आदिपर्व, महाभारत।
. 3-92/139, आदिपर्व, महाभारत।
25/45, सभापर्व, महाभारत।
12-19/11, आदिपर्व, महाभारत।
आस्तीक पर्व/ आदिपर्व, महाभारत।
महाभारत
2/5, भगवद्गीता।
2-3/2, भगवद्गीता।
29 मार्च 2008 को, नेशनल थियेटर नार्वे, (ओस्लो) में पढ़ा गया पत्र।
अखंडित एकता बोले हमारे देश की भाषा
हमारी भारती है हमें यह एक अभिलाषा
This entry was posted
on शुक्रवार, 15 जनवरी 2010
at 9:26 pm
and is filed under
नरेंद्र कोहली,
लेख
. You can follow any responses to this entry through the
comments feed
.